कड़की के ज़माने की लिखी एक कविता है , पोस्ट करने का दिल किया , कुछ नौकरी की तलाश में भटकने का तजुर्बा बुरा था इसलिए तल्खी सी नज़र आएगी :-)...
"खुश्की इस जेब की कितने रंग दिखाए और
कितने दरवाज़े खटखटवाये , कितने ताने सुनवाए और
कई गधो को तो बाप बना ही लिया है
देखिये कितने बुतों को सिजदे करवाए और ....
जो जानशीन थे सब मुँह फेर बैठे हैं
वक्त गुज़रा जब चैन से कुछ देर बैठे हैं
मोसमो का बदलना तो रोज़ की बात हुई अब
दोसतो का मुकरना तो रोज़ की बात हुई अब
मोहब्बतों में ठगी का सिलसिला , कितनी देर चलवाए और
देखिये यह कड़की का ज़माना , कितने रिश्ते तोड़वाऐ और ....
हर दफ्तर , हर अफसर मुह फेरे बैठा है
तुम्हारी कोई औकात नही , हर बाबु यह कहता है ,
चिट्टी पत्रई लाओ बड़े नामो के दस्तख़त वाली
तुम्हारी डिग्रीया नही यहाँ किसी ज़ुर्रअत वाली
देखिये इस system की बेरुखी कितनी रिश्वते दिलवाए और
कितने रास्ते नपवाये शहर के , कितनी चप्पले घिस्वाए और ....
कई गधो को तो बाप बना ही चुके हैं
देखिये कितने बुतों को सिजदे करवाए और....
Friday, October 10, 2008
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